Dated: May 2025
जैन धर्म में धर्मस्थानों की सम्पत्ति व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक होती है। किसी भी धर्मस्थल की सम्पत्ति को कोई व्यक्ति—चाहे वह दानदाता हो, ट्रस्टी हो, गुरुजन हों या प्रबंधक—अपना निजी स्वामित्व नहीं मान सकता।
जब कोई व्यक्ति धर्मस्थल को दान देता है, तो वह उस सम्पत्ति का स्वामित्व स्वयं भी खो देता है। उस सम्पत्ति पर न तो कोई व्यक्तिगत दावा किया जा सकता है, और न ही उसे किसी अन्य के नाम व्यक्तिगत रूप से स्थानांतरित किया जा सकता है। यह सम्पत्ति सम्पूर्ण समाज और धर्म के नाम होती है, और इसके उपयोग की जिम्मेदारी भी धार्मिक, नैतिक और कानूनी दायित्वों के अंतर्गत होती है।
न्यायालय का भी स्पष्ट मत
इस विषय में भारतीय न्यायालयों ने भी कई मामलों में स्पष्ट रूप से कहा है कि:
- जैन धर्मस्थल की सम्पत्ति निजी नहीं मानी जा सकती।
- इसे व्यक्तिगत अधिकारों से परे रखकर, धार्मिक ट्रस्ट और सामूहिक भक्ति के केंद्र के रूप में देखा जाता है।
- ट्रस्टी, प्रबंधक या किसी भी भूमिका में मौजूद व्यक्ति, केवल सेवक और व्यवस्थापक की भूमिका निभाते हैं—not मालिक।
व्यवस्था और परंपरा का आधार
जैन धर्मस्थलों का संचालन गुरुओं के मार्गदर्शन और भक्त समुदायों के सहयोग से चलता है। यह परंपरा:
- सदियों से चली आ रही सेवाभावना और आस्था पर आधारित है।
- प्रबंधक या ट्रस्टी केवल व्यवस्था के अंग होते हैं, लेकिन वे कभी भी स्वामी नहीं होते।
इस प्रकार जैन धर्मस्थल:
- पूरे समाज की आस्था और विश्वास की धरोहर होते हैं,
- जिन्हें केवल निष्ठा, पारदर्शिता और धर्मसम्मत भावना से ही संचालित किया जाना चाहिए।
समाप्ति और संदेश
आज आवश्यकता है कि हम इस सामूहिक स्वामित्व और धर्मिक उत्तरदायित्व की भावना को मजबूत करें। धर्मस्थलों को निजी सम्पत्ति समझने की प्रवृत्ति पर रोक लगे और हर जैन धर्मप्रेमी व्यक्ति इस जागरूकता को फैलाने में योगदान दे।
धर्मस्थान हमारे हैं — पर व्यक्तिगत नहीं, समाजिक और आत्मिक उत्तरदायित्व से बंधे हुए।