धार्मिक आयोजन में मर्यादा

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Dated: August 2025

भव्य जीवों की आराधना के परम आदर्श तीर्थंकर प्रभु ने आडंबर
रहित धर्म की स्थापना की, अंधेरे में रोशनी दिखाने का प्रयत्न किया।
आदश्े ा नहीं, उपदेश दिया, मोक्ष के मार्ग को दिखाया। लेकिन आज
साधना के क्रम विपरीत भी चल रहे हैं। भगवान् के नाम की मूर्ति या
तस्वीर को मंदिर, पूजा स्थल या फिर घर में सिर्फ सजावट के रूप में
बिठा दते े हैं लेकिन उनके उपदेशों और आदर्शों को नजरअंदाज करते
हैं। जय-जयकार के नारे लगाते हैं परंतु सच्ची श्र(ा नदारद है।
प्रार्थना, प्रवचन, प्रतिक्रमण, तपस्या आदि धार्मिक प्रवृत्ति करते हैं परंतु
आंतरिक परिवर्तन, जीवन में परिवर्तन का अभाव है। भगवान् के नाम
पर लाखों रुपये पानी की तरह बहा देते हैं, लोगों को भोजन आत्म
कल्याण की वस्तु के बजाय खिलवाड़ ही बना दिया है।
आगम में वर्णित श्रावक निष्ठावान, विद्वान, बु(िमान तथा धर्म
परायण थे। आज न तो हमारे में धर्म के प्रति निष्ठा है और न ही धर्म
की पूर्ण जानकारी। अपनी आन-बान-शान को बनाये रखते हैं।
जरूरतमन्द स्वधर्मियों को सहयोग करें।
धर्म की मर्यादाएं होती हैं। और उनका पालन करना हमारा
कर्तव्य है। लेकिन हमने आधुनिकता तथा जमाने की आड़ में अनेक
नियमों को ताक में रख दिये हैं। तथा धर्म की मर्यादाओं की लक्ष्मण
रेखा पार कर चुके हैं।
महंगे चातुर्मास, साधु-संतों का नगर प्रवेश, दीक्षा महोत्सव,
जयन्तियाँ, पुण्य-तिथियाँ, तपस्या, मान-सम्मान आदि समारोह में पानी
की तरह पसै ा बहाया जाताह।ै धार्मिक आयाजे न सादगीपण्ू ार्, त्याग-तपस्या,
सँवरपूर्ण होने चाहिए।
आडंबर, व्यर्थ की रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं ने धर्म के प्रत्येक क्षेत्र
में पैर जमा लिए हैं। आज व्यक्ति धन तो बहुत कमा रहा है लेकिन
उसका सदुपयोग करने का उसे विवेक नहीं। आडंबर, प्रदर्शन से धर्म
की वास्तविक प्रभावना नहीं हो सकती। जैन दर्शन भीड़ को नहीं,
सत्य को महत्व दते ा है। जिनशासन के प्रति अपना कर्तव्य समझकर
धर्म को राजनीति व आडंबर से दूर रखेंगे। भगवान् द्वारा फरमाए
सि(ांतों पर दृढ़ श्र(ा रखेंगे तथा अपने कर्तव्य, लिए हुए व्रतों का
आत्मसाक्षी से पालन करेंगे तभी संघ का विकास होगा। तभी हम
भगवान् महावीर के अर्थात् जिनशासन के सच्चे साधक होंगे। हम
महावीर के हैं महावीर हमारे हैं, जीओ और जीने दो आदि नारे तो
हमने खूब लगाए लेकिन आत्मचिंतन करना है कि भगवान् के नाम के
नारे तो हमने खूब लगाए लेकिन उनकी सि(ांतों को, उनकी आज्ञा को
अपने जीवन में कितना स्थान दिया है। जब हम भगवान की आज्ञा के
अनुरूप चलेंगे तभी भगवान् के संघ के सदस्य कहलाने के अधिकारी
हांगे ।

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